कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन की घोषणा ने मानो दुनिया की रफ्तार ही थाम दी थी। गांव से लेकर शहर, खेत से लेकर पार्क, तालाबों से लेकर समुद्र, सब ऐसे खाली व सुनसान सा हो गया मानो सारे मनुष्य प्रवास पर चले गए हों। कुछ ही समय बाद सोशल मीडिया पर सभी ओर स्वच्छ हवा, चहचहाते पक्षी और नीला आसमान आदि की गुफ्त्गू होने लगी। यह सौगात थी शहर वासियों को प्रकृति की तरफ से, और चारों और प्रकृति का गुणगान होने लगा।
लेकिन लगता है हम इंसान ऐसे बनाए गए हैं कि हमें प्रकृति की खुशी बर्दाश्त नहीं होती। जैसे-जैसे लॉकडाउन के दिन बीतते जा रहे थे, हमारे अंदर की लालसा मजबूर कर रही थी कदम बाहर रखने को और करें भी क्यों न, क्योंकि हम तो ठहरे सामाजिक प्राणी। लॉकडाउन के साथ बहुतायात में खाना पकाने वाले महारथियों की संख्या में भी इजाफा हुआ। बस अंतर यह था कि शहर में नए पकवान बनाने का दौर था, और जो इलाके जंगलों से सटे हुए थे वहां पुराने पकवान बनाने का दौर शुरू हुआ, पुराने दौर तरीकों से, हथियारों से, शिकार करके।
यह बात करती है ह्रदय को विचलित कर देने वाली लेकिन सत्य है, और सत्य का काम है विचलित करना। अब आप सबके दिमाग में यह प्रश्न आ रहा होगा कि ऐसा क्यों भला? तो चलिए आपकी इस दुविधा को दूर कर देते हैं। इंसानों की आवाजाही कम होने से जंगली जानवरों को भी घूमने का मौका मिला है, और लॉकडाउन की सिफारिश से बेरोजगारी को भी भरपूर मौका मिला है पैर पसारने का। कुछ लोग अपने पेट भरने का जुगाड़ तक नहीं कर पा रहे।
चलिए इस भावदृश्य को तथ्यों की मदद से समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका की वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसायटी के प्रमुख जोसेफ वाल्टसन कहते हैं ‘लॉकडाउन की वजह से बढ़ी बेरोजगारी के चलते एशिया में काफी लोगों ने गांव की ओर पलायन किया है। दो वक्त की रोटी कमाने के लिए लोगों को अवैध तरीके से शिकार, जंगल काटना और ऐसी कई गैर कानूनी गतिविधियों का सहारा लेना पड़ रहा है। एशिया में कंबोडिया से अफ्रीका तक शिकार की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, जिसमें जंगली जानवरों के अंगों की तस्करी भी शामिल है। और यह लगातार बढ़ता जा रहा है क्योंकि निगरानी कम हो गई है।’
कुछ समाजसेवियों का मानना है हमें जंगलों पर निर्भर लोगों की आर्थिक रूप से मदद करनी होगी। जो लोग इन गैरकानूनी और प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के कामों में लिप्त हैं, उनकी आर्थिक मदद की जाए और रोजगार दिया जाए। भारत के बाहर कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने ऐसे लोगों को ही जंगलों की निगरानी का कार्य सौंप रखा है।
चलिए अब प्रकृति के दूसरे रुख से भी रूबरू हो लेते हैं। तालाबंदी के ताले धीरे-धीरे खोले जा रहे हैं। लोग लेकिन ऐसे बाहर आ जा रहे हैं मानो जैसे जंगली सांड प्रतियोगिता से शुरू होने पर मैदान में आते हैं। शहर के चक्कर ऐसे लगाए जा रहे हैं मानो बचपन में शहर की हर एक गली में टायर घुमाकर खेलने की यादें बसी हो। बड़े अजीब प्राणी हैं हम भी। कुछ चीज ज्यादा देर तक अच्छी नहीं लगती हमें। हां सही समझे आप, नहीं पसंद आया हमें खुशबूदार हवा बरकरार रखना, पक्षियों की चहचहाहट सुनना, खुले आसमान में तारे देखना।
अब शायद यह ऐसे ही चलता रहेगा, प्रदूषण बढ़ता रहेगा, महामारी आएंगी।लेकिन जीवन चलता रहेगा, बस यह नहीं पता कब तक।
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